पंचकर्म – आयुर्वेद किडनी को कर सकता है पुनर्जीवित : डॉ. देवेश कुमार श्रीवास्तव

किडनी के इलाज में पंचकर्म – आयुर्वेद की अद्भुत क्षमता को अब वैश्विक स्तर पर भी मान्यता मिल रही है। वरिष्ठ आयुर्वेद विशेषज्ञ वैद्य डॉ. देवेश कुमार श्रीवास्तव, जिन्होंने आयुष विभाग में अपनी सेवाएं दी हैं, बताते हैं कि जहां ऐलोपैथी में किडनी रोगों का उपचार केवल डायलिसिस या प्रत्यारोपण के विकल्पों तक सीमित है, वहीं आयुर्वेद और पंचकर्म चिकित्सा में ऐसे समाधान हैं जो किडनी को पुनर्जीवित करने की क्षमता रखते हैं।
डॉ. श्रीवास्तव की स्वयं विकसित रिलैक्सेशन थेरेपी और आयुर्वेदिक औषधियों के माध्यम से किडनी में मृतप्राय कोशिकाओं को पुनर्जीवित किया जा सकता है। आयुर्वेद में उपयोग की जाने वाली कई जड़ी-बूटियां न केवल किडनी, बल्कि शरीर के अन्य महत्वपूर्ण अंगों को भी पुनर्जीवित और सुदृढ़ बनाने की क्षमता रखती हैं। आयुर्वेद का वैज्ञानिक दृष्टिकोण, जिसमें मृत कोशिकाओं का पुनर्जागरण शामिल है, जिससे आयुर्वेद में प्रयुक्त विशिष्ट औषधियों और उपचारों द्वारा किडनी की क्षतिग्रस्त कोशिकाओं में जीवन का संचार किया जा सकता है।
आयुर्वेदिक उपचार न केवल डायलिसिस और ट्रांसप्लांट की आवश्यकता को कम करता है, बल्कि जटिल रोगों से जूझ रहे मरीजों को भी राहत प्रदान करता है। आयुर्वेद केवल दवाओं तक सीमित नहीं है, यह आहार, दिनचर्या, और योग के समन्वय से शरीर को संतुलित करता है। पंचकर्म के माध्यम से शरीर में संचित विषाक्त पदार्थों को बाहर निकाला जाता है, जिससे रक्त का संचार बेहतर होता है और किडनी पर तनाव कम होता है। इसके साथ ही, यह प्रक्रिया किडनी की मृतप्राय कोशिकाओं को पुनर्जीवित करने और प्राकृतिक रूप से कार्यशील बनाने में सहायक है।
पंचकर्म के प्रमुख लाभ
शरीर का विषहरण : किडनी से अपशिष्ट पदार्थ निकालने की क्षमता में सुधार होता है।
ऊर्जावान कोशिकाओं का निर्माण : पंचकर्म उपचारों से किडनी की कोशिकाओं को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि : यह प्रक्रिया न केवल किडनी, बल्कि पूरे शरीर को रोगों से लड़ने में सक्षम बनाती है।
तनाव और मानसिक शांति : पंचकर्म के साथ योग और ध्यान मानसिक तनाव को कम कर किडनी पर पड़ने वाले अप्रत्यक्ष प्रभाव को कम करता है।
प्रमुख पंचकर्म प्रक्रियाएं
विरेचन : पाचन तंत्र और किडनी की सफाई।
बस्ती : मूत्र प्रणाली और किडनी के कार्यों को संतुलित करना।
अभ्यंग और शिरोधारा : रक्त संचार बढ़ाने और तनाव कम करने के लिए।
आयुर्वेद का प्रभावी आहार और दिनचया:र् पौष्टिक आहार जैसे मूंग-दाल, गाजर, पालक, और नारियल पानी किडनी को स्वस्थ रखते हैं। विश्राम, योग, और ध्यान से तनाव कम होता है, जिससे रोगी का मानसिक स्वास्थ्य भी सुधरता है। डॉ. देवेश कुमार श्रीवास्तव अपने 40 वर्षों के शोध और अनुभव से आयुर्वेद और प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों को नए आयाम प्रदान कर रहे हैं। पंचकर्म, योग, एक्यूप्रेशर, एक्यूपंक्चर, विश्रांति चिकित्सा और औरिकुलो थेरेपी में उनका गहन प्रशिक्षण उन्हें इस क्षेत्र में अग्रणी बनाता है।
लखनऊ हाईकोर्ट डिस्पेंसरी में वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं देने के पश्चात, डॉ. श्रीवास्तव गोवा के मोरजिम में ‘सुश्रुत आरोग्यधाम आयुर्वेद पंचकर्म केंद्र’ की स्थापना की। यहां हजारों जटिल रोगों से पीड़ित मरीजों को आरोग्य प्रदान कर रहे हैं। उनका कहना है कि क्रोनिक किडनी रोग की उच्च घटनाएं और आजीवन महंगा उपचार, निदान और डायलिसिस आयुर्वेद को समग्र देखभाल के रूप में स्वीकार करने में बाधा डालते हैं।
पिछले एक दशक में आयुर्वेद अस्पताल में गुर्दे की बीमारियों की घटनाओं में दो गुना वृद्धि हुई है। सबसे आम रोगी सी.के.डी., गुर्दे की पथरी और नेफ्राइटिस हैं। समग्र दृष्टिकोण व्यक्तिगत है और आहार, योग, पंचकर्म (विषहरण), हर्ब-खनिज उपचार, ध्यान और दैनिक जीवन शैली के मॉड्यूलेशन/सुधार के माध्यम से लक्षण की तुलना में कारण का इलाज करता है। इष्टतम शर्करा और रक्तचाप नियंत्रण के साथ-साथ रेनो सुरक्षात्मक दवाओं से सी.के.डी. को अंतिम चरण के गुर्दे की बीमारियों में बढ़ने से रोका जा सकता है और गुर्दे की डायलिसिस और प्रतिस्थापन चिकित्सा को कम किया जा सकता है।
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आयुर्वेद चिकित्सक को नेफ्रोटॉक्सिक पौधों और भारी धातु युक्त दवाओं को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। पंद्रह एकल औषधियाँ, सात आयुर्वेद सूत्र और नेफ्रोटॉक्सिक आयुर्वेद जड़ी बूटी/यौगिक का वर्णन साक्ष्यों के साथ किया गया है। इस समीक्षा में, आयुर्वेद चिकित्सा, आहार पंचकर्म, योग का अभ्यास, प्राणायाम, पुरानी गुर्दे की बीमारियों की जटिलताओं को रोकने और कम करने के लिए जीवन शैली में संशोधन के माध्यम से समग्र स्वास्थ्य देखभाल दृष्टिकोण पर साक्ष्यों के साथ चर्चा की गई है। हालाँकि आयुर्वेद का वर्णन 5000 ईसा पूर्व से पहले किया गया था, फिर भी आयुर्वेद साहित्य में वस्ति (मूत्राशय), वृक्का (गुर्दा), गविनी (मूत्रवाहिनी), मूत्रमार्ग (मूत्रमार्ग) आदि का वर्णन पाया गया। आयुर्वेद में मूत्र निर्माण तंत्र आधुनिक शरीर विज्ञान की वर्तमान समझ से अलग है मूत्र का निर्माण आहार रस (प्रसंस्कृत भोजन) से सार (शरीर के लिए आवश्यक) और कित्ता (अपशिष्ट) के विभाजन के बाद होता है। कित्ता (अपशिष्ट) का तरल भाग, पक्ष्यसया (बड़ी आंत) में ठोस भाग पुरीष (स्टोल) से अलग किया जाता है और मूत्रवाह धामनी (मूत्र परिवहन चैनल) के माध्यम से वस्ति (मूत्राशय) में ले जाया जाता है। आयुर्वेद में गुर्दे की बीमारियों के निर्माण के बारे में विस्तार से बताया गया है और मूत्र वाह स्रोतो दूष्टि के अंतर्गत मूत्रघात, मूत्रचक्र, अश्मरी, उष्ण वात, सोम रोग, उदावर्त, अस्थिला और प्रमेह जैसे रोगों पर विचार किया जा सकता है।
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अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित डॉ. श्रीवास्तव का जीवन आयुर्वेद के प्रति उनके अपार समर्पण और मानव सेवा का प्रतीक है। आयुर्वेदिक चिकित्सा के माध्यम से उपचार से रोगियों को शारीरिक और मानसिक शांति का अनुभव होता है। इनके अनुभव और ज्ञान ने न केवल रोगों का उपचार किया है, बल्कि रोगियों के जीवन में नई ऊर्जा और आशा का संचार भी किया है।
इनके अनुभव और ज्ञान ने न केवल रोगों का उपचार किया है, बल्कि रोगियों के जीवन में नई ऊर्जा और आशा का संचार भी किया है।